मान्‍यता है कि माता अपने भक्‍तों की मनोकामना पूरी करती हैं। यहां का मनोरम दृश्‍य लोगों का मन मोह लेता है। पहाड़ी की चोटी पर स्थित मां का मंदिर अष्टकोणीय है। कहा जाता है कि इस स्‍वरूप का मंदिर देश में कहीं अन्‍य नहीं है। इस मंदिर की सुंदरता और भव्यता शब्‍दों से परे है। यहां शिलालेख और खंडित मूर्तियों में भी भव्यता दिखती है। मान्यता है कि लोक कल्याण के लिए मां भगवती ने मुंड नामक राक्षस का वध यहां किया था। तब से यह स्थान मां मुंडेश्‍वरी के नाम से जाना जाने लगा।

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मंदिर को देखते ही होता है दिव्‍यता का अहसास

कहा जाता है कि मां मुंडेश्‍वरी मंदिर का पता तब चला जब कुछ गड़ेरिये अपने पशुओं को चराने पहाड़ी पर गए थे। उसी समय मंदिर पर उनकी नजर पड़ी। इसके बाद धीरे-धीरे लोग इस मंदिर के बारे में जानने लगे। हालांकि आरंभ में आसपास रहने वाले लोग ही मंदिर में आकर पूजा करते थे। जब माता की महिमा की ख्‍याति फैली तो फिर राज्‍य और देश ही नहीं बल्कि विदेशों से भी भक्‍त आने लगे। यहां से प्राप्त शिलालेख में वर्णित तथ्यों से पता चलता है कि यह आरंभ में वैष्णव मंदिर रहा होगा, जो बाद में शैव मंदिर हो गया। उत्तर मध्य युग में शाक्त विचार धारा के प्रभाव से शक्तिपीठ के रूप में परिणत हो गया।

कई हजार वर्ष पूर्व से हो रही पूजा

जानकारी के अनुसार, मां मुंडेश्‍वरी मंदिर में लगभग दो हजार वर्ष पूर्व से पूजा-अर्चना हो रही है। मंदिर की प्राचीनता का अहसास यहां मिले महाराजा दुतगामनी की मुद्रा से भी होता है। बौद्ध साहित्य के अनुसार वह राजा अनुराधापुर वंश का था। ईसा पूर्व 101-77 में श्रीलंका का शासक रहा था। मंदिर परिसर में मिले शिलालेखों से इसकी ऐतिहासिकता प्रमाणित होती है। इस मंदिर का उल्लेख अलेक्‍जेंडर कनिंघम ने भी अपनी पुस्तक में किया है।

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मां स्वीकार करती हैं रक्तविहीन बलि

मां मुंडेश्‍वरी मंदिर की शक्ति का एहसास रक्त विहीन बलि से ही हो जाता है। शक्तिपीठ होने के बावजूद यहां एक बूंंद रक्‍त नहीं गिरता। इस मंदिर में मां मुंडेश्‍वरी की प्रतिमा के सामने जो बलि दी जाती है उसमें एक बूंद रक्त नहीं गिरता। सिर्फ अक्षत व मंत्र से बलि पूरी हो जाती है। इस मंदिर की यह शक्ति देख हर कोई मां की महिमा का बखान करता है। इसके अलावा मां मुंडेश्‍वरी मंदिर के गर्भगृह में स्थित पंचमुखी शिवलिंग की महिमा भी अपरंपार है। इस शिवलिंग की यह खासियत है कि यदि एकाग्रचित होकर कोई श्रद्धालु देखे तो यह सुबह दोपहर और शाम अलग-अलग रंगों में दिखेगा। मंदिर का अष्टाकार गर्भगृह इसके निर्माण से अब तक कायम है। मंदिर के बाद दक्षिण में नदी है।

साल में तीन बार मेला लगता है

इस दिर में साल में तीन बार मेला लगता है। साल में माघ माह के अलावा चैत व शारदीय नवरात्र में यहां लगने वाले मेला में बिहार सहित अन्य राज्यों से भी श्रद्धालु आते हैं। मंदिर में तांडुल (चावल) का प्रसाद चढ़ाया जाता है।

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