इसके उत्तर में भगवान विष्णु बोले :

नाहं वसामि वैकुण्ठे, योगिनां हृदये न च ।
मद्भक्ता: यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद ।।

अर्थात-“हे नारद! न तो मैं वैकुंठ में निवास करता हूँ और न ही योगियों के हृदय में। मैं तो वहाँ निवास करता हूँ, जहाँ मेरे भक्त जन श्रद्धाभाव से मेरा चिंतन, मनन और कीर्तन करते हैं।

भगवान विष्णु द्वारा दिए गए इस सूत्र में समस्त साधनात्मक प्रयासों का आधार सुरक्षित है। सत्य यही है कि भगवान तक पहुँचने का सबसे सरल उपाय निष्पाप हृदय से की गई प्रार्थनाएँ ही हैं।

भक्त भगवान को न भी देख पाए तब भी त्रिलोकदर्शी भगवान अपने भक्तों का वैसे ही ध्यान रखते हैं, जैसे कि धूल- धूसरित हो जाने पर भी माँ अपने बच्चे का रखती है। जो अपना सब कुछ भगवान को सौंपकर निश्चिंत हो जाते हैं, उनकी सारी चिंताओं का भार फिर स्वयं भगवान उठाते हैं।

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